ये शर्मनाक है।
दिल्ली में कल हुए धमाकों के सिलसिले को कुछ और नाम नहीं दिया जा सकता। ये धमाके करने वाले किसी एक जात या धर्म से संबंध नहीं रखते। वो सिर्फ और सिर्फ वहशी हैं। जो देश में चैन और अमन नहीं चाहते। जिनके पास कोई एजेंडा नहीं है, और इसलिए वो लोगों का, सरकार का, समाज का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए इस तरह की घिनौनी हरकतें करते रहते हैं। ऐसे लोगों को जल्द से जल्द समाज से गायब कर देने की ज़रूरत है।
लेकिन इस बीच आम आदमी को इस तरह के धमाकों की आदत डाल लेनी चाहिए। मैं जानता हूं कि मेरा या ख्याल कई लोगों को ग़लत और बुरा लग सकता है। लेकिन ये भी समझना उतना ही ज़रूरी है कि इन धमाकों को और साथ ही आतंकवाद के इस नए रूप से निपट पाना, फिलहाल काफी मुश्किल है।
गुजरात में हुए धमाकों के बाद, मीडिया के पास एक ई-मेल आया। जिसमें इंडियन मुजाहिदीन ने हमले की ज़िम्मेदारी ली। पुलिस ने जब उस ई-मेल को भेजने वाले का पता लगाया, तो वो मुंबई में ट्रेस हुआ। दिल्ली में हुए धमाकों के बाद भी यही हुआ। एक और ई-मेल आया। एक बार फिर से ये मुंबई के एक घर में ट्रेस हुआ है। जिसका घर, उसे ही नहीं पता कि मेरा ई-मेल हैक किया जा रहा है। पहली बार में वाई-फाई इंटरनेट को हैक किया गया, दूसरी बार की डीटेल का इंतज़ार है।
एक और खास बात ये रही कि धमाकों खबर आने के करीब 2-3 घंटे बाद, ज़्यादातर लोग (इसे न्यूज चैनल पढें) वापस अपने नॉर्मल रुटीन पर पहुंच गए। वापस वही सारे कार्यक्रम, जिनमें से आधे से ज्यादा आपके काम के नहीं होते। कुछ थे, जो आज सुबह तक उसी खबर को पीटे हुए हैं। इसकी भी एक वजह है।
इन दो बातों को एक साथ जोड़ कर देखें तो ये बात सामने आती है कि हम लोग अब आतंक के साथ जीना सीख गए हैं। शायद वो वक्त अब नहीं रहा जब किसी और के बेटे, पिता, बहु, बेटी की मौत पर हमें ऐसे दुख होता जैसे हमने कोई अपना खो दिया हो। शायद दोस्तों के जाने का भी उतना दुख हमें नहीं होगा। हमें तब तक आतंक को लेकर परेशानी नहीं होगी, जब तक हमारा, बेटा, भाई, पिता, बहन, मां या कोई और किसी धमाके का शिकार ना हो। हम आतंक के साथ जीना सीख गए हैं। हमारे लिए, ये रोज़मर्रा की बात हो गई है। हमारे देश में जिस रफ्तार के धमाके होते रहते हैं, जिस फ्रीक्वेंसी के साथ होते हैं, और जिस तरह हम महीने में कम से कम चार बार, अखबार की फ्रंट पेज की हेडलाइन में पढ़ते हैं, कि कल और इतने लोगों की मौत धमाकों में हो गई है, हमें फर्क पड़ना बंद हो गया है।
अब ये अच्छा है या बुरा, इस बारे में आप और मैं अलग अलग सोच रख सकते हैं। डेमोक्रेसी का यही फायदा है।
मुझे लगता है कि ये एक अच्छी बात है। दो तीन वजहें हो सकती हैं इसकी। एक तो ये कि हमारी और आपकी ज़िंदगी, इस बात से नहीं रुक जाती, की देश के दूसरे कोने में, आप से 2000 किलोमीटर दूर, एक आपदा आई है। सीधे तौर पर आप उससे नहीं जुड़े हैं। हां, ये ज़रूर है कि आपको सतर्क हो जाना होगा। या फिर अगर घर से बाहर हैं, तो सुरक्षा के लिहाज़ से वापस लौट जाना होगा, लेकिन फिर भी, आप पर सीधे तौर पर असर नहीं पड़ने का फायदा ये कि आपकी ज़िंदगी चलती रहती है।
दूसरी अहम बात ये है कि इससे आतंकियों को ये संदेश जाता है कि तुम हमें अपने इशारों पर नहीं नचा सकते। वो एक धमाका करेंगें, दो करेंगे, दस करेंगे, एक न एक दिन तो उन्हें समझ में आएगा, कि अब ये तरीका नहीं चलने वाला। कुछ अलग करना होगा। ये ध्यान रखना होगा, कि आज कल के आतंकी, डाकू नहीं है, जो बे-पढ़े लिखे हों, और अपने उजड्ड दिमाग से बस सामने वाले को मारने का इरादा रखते हों। आज के आतंकी काफी सुलझे हुए, पढ़े लिखे, और एजेंडे वाले हैं (ऐसा वो मानते हैं, मैं नहीं।)। तो साफ तौर पर अगल उनका प्लान कामयाब नहीं होता, तो वो अपनी स्ट्रैटेजी में बदलाव करते हैं। और आम आदमी, इन मूर्खतापूर्ण हरकतों से बच जाता है।
अक्सर ये बदलाव, ज़्यादा खतरनाक होते हैं। अमेरिका में छोटे मोटे बम नहीं फटते। अमेरिकी सरकार और इंटेलिजेंस ने इस तरह की हरकतों को करने वाले आतंकियों से निजात पा ली है। लेकिन आतंकियों ने जो बदलाव किए, वो ज़्यादा खतरनाक थे। 9/11 के हमले हम सभी को याद हैं।
थोड़ी दूर की कौड़ी लग सकती है, पर ये समझना ज़रूरी है कि आतंकवाद से निपटने का एक अहम तरीका है, शिक्षा के स्तर को सुधारना। जो आतंकी, ग़लत काम को सही मान कर, उसे पूरी निष्ठा के साथ कर सकते हैं। क्या उन्हें ये नहीं समझाया जा सकता है कि वो ग़लत हैं? मुझे लगता है, फर्क शिक्षा का है। शिक्षा आदमी की सोच बदलती है। और यही वो साधन है, जो आने वाले समय में हमें आतंकवाद से बचा सकती है। और ये भी साफ करना चाहुंगा कि मैं शिक्षा की (education) बात कर रहा हूं, सिर्फ स्कूली पढ़ाई की नहीं। शिक्षा, जो सोच पैदा करे। जो ये बताए, कि सही क्या है और ग़लत क्या। साथ ही ये भी कि दुनिया की कोई भी समस्या, बात कर के सुलझाई जा सकती है। सिर्फ खुद से ऊपर उठ कर देखने की ज़रूरत है।
लेकिन जब तक ये नहीं होता, तब तक, आपको और हमें, अपने देश में आतंकियों, और धमाकों की आदत डाल लेनी चाहिए।