Archive for सितम्बर, 2008

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Its a long way to go..

सितम्बर 28, 2008

Its a long way to go..

After the fabulous night at the ITC Sheraton this Friday, I realized that a lot has to be achieved before you feel that you have been there, done that. Its not only in the terms of money. Obviously, money has to be a part, and that will come with time. But at this time, when my colleagues have got what they deserve, what about me??

Lemme explain.

My best friends in office, Deep and Smriti hosted the 2008 Consumer Awards ceremony. They are doing it for quite a long time now. The respect and the pamper that a host receives on the front of all the distinguished guests, makes it a memorable event for them. Even if they are not very happy with the way it is, the AVs that were made, the way they were introduced. They were the best of the lot, that’s what had been conveyed, to all of them. Including the Awaaz team.

I don’t know if people like it or not, I felt that, even being in the best of books with my bosses, if you are not known to the outside world, it is worthless. All the effort you make, and the money you get, the praises you get from the bosses, and the jealousy you receive from your colleagues is a waste.

For you…. you are just a smart looking man, whom, the bosses will ask to get ready, wear a jacket and a tie, and reach at the venue. If the guest are late, the hall should not look empty. And by the time you reach, the guest are in time, you can be thrown out of the hall, as was the case this Friday. You were not let inside also, to feel what it means to be with the who’s who of the town.You are just a filler, and they don’t need you, once there job is done.

Huh…. It feels bad… pinches a lot.

Its a long way to go, until you be a part of the group, AV’s being made for you, and you been introduced in a high profile group as the “stars of CNBC Awaaz.”

Its a long way to go…

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आदत डाल लेनी चाहिए

सितम्बर 14, 2008

ये शर्मनाक है।

दिल्ली में कल हुए धमाकों के सिलसिले को कुछ और नाम नहीं दिया जा सकता। ये धमाके करने वाले किसी एक जात या धर्म से संबंध नहीं रखते। वो सिर्फ और सिर्फ वहशी हैं। जो देश में चैन और अमन नहीं चाहते। जिनके पास कोई एजेंडा नहीं है, और इसलिए वो लोगों का, सरकार का, समाज का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए इस तरह की घिनौनी हरकतें करते रहते हैं। ऐसे लोगों को जल्द से जल्द समाज से गायब कर देने की ज़रूरत है।

लेकिन इस बीच आम आदमी को इस तरह के धमाकों की आदत डाल लेनी चाहिए। मैं जानता हूं कि मेरा या ख्याल कई लोगों को ग़लत और बुरा लग सकता है। लेकिन ये भी समझना उतना ही ज़रूरी है कि इन धमाकों को और साथ ही आतंकवाद के इस नए रूप से निपट पाना, फिलहाल काफी मुश्किल है।

गुजरात में हुए धमाकों के बाद, मीडिया के पास एक ई-मेल आया। जिसमें इंडियन मुजाहिदीन ने हमले की ज़िम्मेदारी ली। पुलिस ने जब उस ई-मेल को भेजने वाले का पता लगाया, तो वो मुंबई में ट्रेस हुआ। दिल्ली में हुए धमाकों के बाद भी यही हुआ। एक और ई-मेल आया। एक बार फिर से ये मुंबई के एक घर में ट्रेस हुआ है। जिसका घर, उसे ही नहीं पता कि मेरा ई-मेल हैक किया जा रहा है। पहली बार में वाई-फाई इंटरनेट को हैक किया गया, दूसरी बार की डीटेल का इंतज़ार है।

एक और खास बात ये रही कि धमाकों खबर आने के करीब 2-3 घंटे बाद, ज़्यादातर लोग (इसे न्यूज चैनल पढें) वापस अपने नॉर्मल रुटीन पर पहुंच गए। वापस वही सारे कार्यक्रम, जिनमें से आधे से ज्यादा आपके काम के नहीं होते। कुछ थे, जो आज सुबह तक उसी खबर को पीटे हुए हैं। इसकी भी एक वजह है।

इन दो बातों को एक साथ जोड़ कर देखें तो ये बात सामने आती है कि हम लोग अब आतंक के साथ जीना सीख गए हैं। शायद वो वक्त अब नहीं रहा जब किसी और के बेटे, पिता, बहु, बेटी की मौत पर हमें ऐसे दुख होता जैसे हमने कोई अपना खो दिया हो। शायद दोस्तों के जाने का भी उतना दुख हमें नहीं होगा। हमें तब तक आतंक को लेकर परेशानी नहीं होगी, जब तक हमारा, बेटा, भाई, पिता, बहन, मां या कोई और किसी धमाके का शिकार ना हो। हम आतंक के साथ जीना सीख गए हैं। हमारे लिए, ये रोज़मर्रा की बात हो गई है। हमारे देश में जिस रफ्तार के धमाके होते रहते हैं, जिस फ्रीक्वेंसी के साथ होते हैं, और जिस तरह हम महीने में कम से कम चार बार, अखबार की फ्रंट पेज की हेडलाइन में पढ़ते हैं, कि कल और इतने लोगों की मौत धमाकों में हो गई है, हमें फर्क पड़ना बंद हो गया है।

अब ये अच्छा है या बुरा, इस बारे में आप और मैं अलग अलग सोच रख सकते हैं। डेमोक्रेसी का यही फायदा है।

मुझे लगता है कि ये एक अच्छी बात है। दो तीन वजहें हो सकती हैं इसकी। एक तो ये कि हमारी और आपकी ज़िंदगी, इस बात से नहीं रुक जाती, की देश के दूसरे कोने में, आप से 2000 किलोमीटर दूर, एक आपदा आई है। सीधे तौर पर आप उससे नहीं जुड़े हैं। हां, ये ज़रूर है कि आपको सतर्क हो जाना होगा। या फिर अगर घर से बाहर हैं, तो सुरक्षा के लिहाज़ से वापस लौट जाना होगा, लेकिन फिर भी, आप पर सीधे तौर पर असर नहीं पड़ने का फायदा ये कि आपकी ज़िंदगी चलती रहती है।

दूसरी अहम बात ये है कि इससे आतंकियों को ये संदेश जाता है कि तुम हमें अपने इशारों पर नहीं नचा सकते। वो एक धमाका करेंगें, दो करेंगे, दस करेंगे, एक न एक दिन तो उन्हें समझ में आएगा, कि अब ये तरीका नहीं चलने वाला। कुछ अलग करना होगा। ये ध्यान रखना होगा, कि आज कल के आतंकी, डाकू नहीं है, जो बे-पढ़े लिखे हों, और अपने उजड्ड दिमाग से बस सामने वाले को मारने का इरादा रखते हों। आज के आतंकी काफी सुलझे हुए, पढ़े लिखे, और एजेंडे वाले हैं (ऐसा वो मानते हैं, मैं नहीं।)। तो साफ तौर पर अगल उनका प्लान कामयाब नहीं होता, तो वो अपनी स्ट्रैटेजी में बदलाव करते हैं। और आम आदमी, इन मूर्खतापूर्ण हरकतों से बच जाता है।

अक्सर ये बदलाव, ज़्यादा खतरनाक होते हैं। अमेरिका में छोटे मोटे बम नहीं फटते। अमेरिकी सरकार और इंटेलिजेंस ने इस तरह की हरकतों को करने वाले आतंकियों से निजात पा ली है। लेकिन आतंकियों ने जो बदलाव किए, वो ज़्यादा खतरनाक थे। 9/11 के हमले हम सभी को याद हैं।

थोड़ी दूर की कौड़ी लग सकती है, पर ये समझना ज़रूरी है कि आतंकवाद से निपटने का एक अहम तरीका है, शिक्षा के स्तर को सुधारना। जो आतंकी, ग़लत काम को सही मान कर, उसे पूरी निष्ठा के साथ कर सकते हैं। क्या उन्हें ये नहीं समझाया जा सकता है कि वो ग़लत हैं? मुझे लगता है, फर्क शिक्षा का है। शिक्षा आदमी की सोच बदलती है। और यही वो साधन है, जो आने वाले समय में हमें आतंकवाद से बचा सकती है। और ये भी साफ करना चाहुंगा कि मैं शिक्षा की (education) बात कर रहा हूं, सिर्फ स्कूली पढ़ाई की नहीं। शिक्षा, जो सोच पैदा करे। जो ये बताए, कि सही क्या है और ग़लत क्या। साथ ही ये भी कि दुनिया की कोई भी समस्या, बात कर के सुलझाई जा सकती है। सिर्फ खुद से ऊपर उठ कर देखने की ज़रूरत है।

लेकिन जब तक ये नहीं होता, तब तक, आपको और हमें, अपने देश में आतंकियों, और धमाकों की आदत डाल लेनी चाहिए।

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Its a DONE DEAL!!!

सितम्बर 6, 2008

NSG से हरी झंडी मिल गई। 
 

आज के दिन को ऐतिहासिक कहना ग़लत नहीं होगा। न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रूप से भारत को हरी झंडी मिल गई और अब वो अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर परमाणू करार कर पाएगा। सिर्फ इतना ही नहीं, एक ज़रूरी बात ये भी है कि NSG ने हमारी शर्तों पर इस डील को माना है। मतलब ये कि भारत को परमाणु अप्रसार संधि, या फिर CTBT पर हस्ताक्षर किए बिना ही, NSG की तरफ से परमाणु तकनीक पर व्यापार करने का अधिकार मिल गया है। 

ये ध्यान देने की बात है कि इस खबर से इतना खुश क्यों हुआ जाए, ये सवाल आपके मन में आ सकता है।

फायदा क्या
अगर आप मुंबई के बाहर देश के किसी भी शहर में रहते हैं, तो इस खबर का सीधा मतलब आपसे है। वो इसलिए क्योंकि आपने बिजली की कमी तो ज़रूर महसूस की होगी। अमेरिका के साथ परमाणु करार होने के बाद, भारत को वहां से परमाणु ईंधन, परमाणु तकनीक और इससे जुड़ी ज़रूरत की दूसरी चीज़ें आसानी से मिलेंगी। और अब देश में बिजली की कमी नहीं होगी।

शुरू से शुरू करते हैं। देश में बिजली (या ऊर्जा कहना ज़्यादा सही होगा।) की कमी के चलते हमारे प्रधानमंत्री ने अमेरिका के साथ परमाणु करार करने की बात शुरू की। ये ध्यान देने की बात है कि भारत में कोयले और पानी से बिजली बनाई जाती है, लेकिन फिर भी वो हमारी ज़रूरतों से काफी कम है। ये कमी पूरा करने का एक सबसे और अच्छा तरीका है, परमाणु ऊर्जा। हमारे देश में न्यूक्लियर पावर प्लांट तो हैं, लेकिन उन्हें खिलाने के लिए परमाणु ऊर्जा की कमी है। कमी क्या, अगर ये कहें कि हमारे पास न्यूक्लियर फ्यूल है ही नहीं, तो ग़लत नहीं होगा। इस परेशानी से निपटने के लिए मनमोहन सिंह ने जॉर्ज बुश के सामने परमाणु संधि का पेशकश की, जो बुश को पसंद आई।

इतिहास

1974 में जब इंदिरा गांधी की अगुवाई में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, उसके कुछ सालों बाद, 1978 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति, जिमी कार्टर ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। इस संधि के हिसाब से भारत को परमाणु कार्यक्रम से जुड़े किसी भी ईंधन या फिर तकनीक का मिलना असंभव हो गया। पिछले 34 सालों से भारत, दुनिया के किसी भी देश के साथ परमाणु ईंधन या तकनीक के सिलसिले में कोई व्यापार नहीं कर सकता था। हमारे न्यूक्लियर रिएक्टर भूखे मर रहे थे।

लेकिन अब आस जगी है।

अमेरिका के साथ परमाणु करार करने के लिए भारत को IAEA और NSG से क्लियरेंस लेना था। IAEA वो संस्था है, दो दुनिया भर में परमाणु अप्रसार को बढ़ावा देती है। ये देखती है, कि कोई देश, अपने घर में परमाणु ईंधन या तकनीक का ग़लत इस्तेमाल तो नहीं कर रहा। दूसरी तरफ NSG वो संस्था है, जो ज़रूरतमंद देशों को परमाणु ईंधन की सप्लाई बरकरार रखती है।

NSG क्या है?

NSG के बारे में कुछ बातें मज़ेदार, और जानने लायक है। NSG में कुल 45 देश हैं, जो साल में एक बार मिलते हैं। इनका कोई पर्मानेंट पता नहीं है। यानी, दुनिया की दूसरी बड़ी संस्थाओं की तरह इनके पास कोई मुख्यालय नहीं है। ये दुनिया के अलग अलग हिस्से में बैठकें करते हैं, और इनके ज़्यादातर फैसले सुरक्षित रखे जाते हैं। एक अहम बात ये है कि NSG में कोई भी फैसला आम राय से ही लिया जाता है। यानी अगर 45 में से एक भी देश, किसी फैसले पर राजी नहीं है, तो फैसला नहीं होगा। माना जाता है कि ये दुनिया की सुरक्षा संबंधी फैसले लेते हैं, इसलिए ये ज़रूरी है।
भारत और अमेरिका ड्राफ्ट पास करने के आखिरी चरण में, ऑस्ट्रिया और आयरलैंड भारत के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था, कि अमेरिका ने 1-2-3 अग्रीमेंट में, हाइड एक्ट के ज़रिए भारत को बिना परमाणु अप्रसार नीति पर हस्ताक्षर किए, परमाणु ईंधन और तकनीक देने का फैसला किया है, ये ठीक नहीं है। इससे दुनिया भर में परमाणु प्रसार को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन 3 दौर की बातचीत के बाद, आखिरकार भारत ने उन्हें भी मना लिया, और भारत को NSG से हरी झंडी मिल गई।

परमाणु परीक्षण और डील  

भारत-अमेरिका परमाणु करार में एक बात और भी है, और वो ये कि, बुश ने कांग्रेस (अमेरिकी संसद) को भरोसा दिलाने के लिए एक पत्र लिखा था, जो बीते दिनों वाशिंगटन पोस्ट में छपा था। उस पत्र में लिखा था कि अगर भारत परमाणु बम का परीक्षण करता है, दोनों देशों के बीच ये समझौता खत्म हो जाएगा। हालाकि दोनों ही देशों के पास, एक साल के नोटिस पर, इस समझौते को खत्म करने का हक है।
लेकिन अगर भारत और अमेरिका के बीच समझौता खत्म भी हो जाता है, तो भी चूकिं भारत को NSG की हरी झंडी मिल चुकी है, वो फ्रांस और रूस के साथ परमाणु संबंधी कार्यक्रम चला सकता है। यानी भारत को तब भी बहुत बड़ा झटका नहीं लगेगा। लेकिन भारत अमेरिका का साथ छोड़ना नहीं चाहेगा…बिग ब्रदर के साथ तो सभी चलना पसंद करेंगे।

चिंताएं

कुछ लोगों की चिंताएं हैं कि न्यूक्लियर डील का मसौदा ठीक नहीं है। जो भाषा न्यूक्लियर डील में लिखी है, या फिर NSG के सामने पेश किए ड्राफ्ट में लिखी हैं, वो ठीक नहीं है। अब ये तो वक्त बताएगा, कि वो ड्राफ्ट किस तरह का है, क्योंकि अक्षरक्षः तो उसमें क्या लिखा है, ये अभी सामने आना बाकि है। लेकिन ये कहना ग़लत नहीं होगा, कि न्यूक्लियर डील के एक तरह से पक्का हो जाने के आज के ऐतिहासिक दिन, भारत को शुभकामनाएं देना ज़रूरी है। कम से कम बिजली के फ्रंट पर तो भारत को अब समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा।

आने वाले आम चुनावों में मैं कांग्रेस को वोट दूंगा।

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आप मेरे बराबर नहीं हैं

सितम्बर 2, 2008

वो कभी एक जैसे नहीं हो सकते… ना… मैं नहीं मानता

ये कैसे तय होगा कि दोनों एक जैसे हैं या नहीं… या फिर दोनों अलग है… और अगर अलग हैं तो कितने… कैसे???? इन सब सवालों के जवाब खोजना काफी मुश्किल है। लेकिन फिर भी हम मानते कुछ हैं, और करते कुछ।

एक confession करना ज़रूरी है। मैं एक hypocrite हुं। एक ऐसा आदमी, जिसके करने और कहने में फर्क है। जो सोचता एक बात है, और करता दूसरी। इसकी सबसे बड़ी वजह है दुनिया का डर। महिलाओं को लेकर एक विचार है… और वो तह-ए-दिल से है। ये कि वो पुरुषों के बराबर हैं। उन्हें मौका मिले तो वो आपके साथ ख़ड़ी हो सकती हैं।

लेकिन फिर दूसरी तरफ ये उम्मीद भी करता हूं, कि जब महिलाएं आस पास हों, तो वो एक typical महिलाओं वाली हरकतें करें। सुंदर बनें, सजे धजें, घर के कामों को अपनी ज़िम्मेदारी समझें, अपने पति को पति समझें, और साथ ही साथ नौकरी भी करें। तो शायद ये ग़लत है। शायद क्या, ये ग़लत ही है। वो जो चाहे करें, मर्दों को तो अपनी नौकरी करनी चाहिए।

महिलाओं के बारे में एक विचार और भी है.. और वो ये कि वो मौकापरस्त होती हैं। अब ये अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। हो सकता है कि मेरा अनुभव इतना अच्छा नहीं रहा हो, पर फिर भी, अनुभव तो अनुभव है, और मेरे पास वो है।

आप कितना भी उन्हें आगे बढ़ने का मौका दें.. जब तक वो comfotable position में हैं, वो करेंगी, लेकिन जैसे ही उन्हें असुविधा हुई, वो रोने धोने, या फिर emotional तरीके अपनाना शुरू कर देंगी। प्यार से बात बनी तो ठीक, नहीं तो झगड़ा करने का option तो है ही। जैसे भी हो, काम बनना चाहिए, और वो भी हमारे हक़ में।

नहीं तो जब आधी रात की फ्लाइट पकड़नी थी, तो फिर अपने दम पर एयरपोर्ट क्यों नहीं जा सकीं?? एक टैक्सी या ऑटो का जुगाड़ क्यों नहीं कर सकीं??? क्यों, सुबह 3 बजे उठ कर 4 बजे ऑफिस पहुंचने वाले पति को रात को 11 बजे जगा कर एयरपोर्ट तक ले जाया गया???

अगर इन सब सवालों के जवाब नहीं हैं, तो ये समझ लेना सही है.. कि आप मेरे बराबर नहीं है। किसी भी तरह से।